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                चल पड़ा हूँ मैं ज़िम्मेदारियों के तले कर्मों का झोला लिए अनजानी राह पर चल पड़ा हूँ मैं                                     कोई साथ न सही                             अकेला हूँ                            बालपन अंगारों से खेला हूँ                            शूलो सजे पथ पर                            चल पड़ा हूँ मैं है रात के साए बड़े दिन दूप से जल रहे लत-पत पैर रक्त से खंजर के जैसे धार पर चल पड़ा हूँ मैं                                           ...
             " निकला हूँ तेरी तलाश में"                   शायद तुम रूठे हो या हो गए हो गुम भला बिन बताए कोई कैसे चला जाता है जन्म जन्मांतर वाला वादा क्या अब याद नही आता है क्या मिल गया कोई साथी नया करती थी न तुम मुझसे हर लम्हा बयां अनगिनत सवालों के जवाब अभी दफन है मिल जाए किसी मोड़ पर इसी आस में निकला हूँ तेरी तलाश में हूँ लापरवाह थोड़ा मैंने माना है पर तुम ही कहती थी मुझे अच्छे से जाना है हर नाकामी पर हँसता ज़माना था उस वक्त हाथ थाम तुमने ही संभाला था हर सपना जुड़ा है तुम्हारे साथ जुड़े तुमसे ही जज़्बात तड़पे ये नैन तेरे दीदार की प्यास में निकला हूं तेरी तलाश में
                         पापी पेट धन्नो वहां मत खेल अगर मटकी टूटी न तो कसम से कमीनी तेरी टांग तोड़ देनी है मेने, सात महीने की गर्वती सांता ने अपनी दूसरी संतान को दो-चार गालिया देते हुए डाँटना शुरू किया। पिछले हफ्ते ही तो जैसे तैसे कर के 2 पैसे जोड़े थे मदनलाल ने मटकी के लिए बाकी ओर था ही क्या घर में एक चूल्हे, दो गिलास,एक थाली ओर ये नई नवेली मटकी के सिवा। देवी ओर मदनलाल की तीन बेटियां थी कल्लो, धन्नो ओर रानू ओर चौथी संतान रास्ते लगी थी। एक पुत्र प्राप्ती की चाहत में मदनलाल को इतने पेटो को पालना पड़ रहा था। कच्ची ईंटो से बना टूटा-फूटा मकान, बरसात में टप टप करती छत्त मानो इंद्र देवता यही बरसे हो बस, एक खाट जिसके पैरो को पोलियो हो गया था, अंधेरे के बीच हल्की रोशन लालटेन, मक्खियों का भिन्न भिन्न करता संगीत घर मे गूंजता, एक फटी चादर, कुछ खाली डिब्बे ये सारी पूँजी मदनलाल के नाम थी। देवी जो कि पिछले सात महीनों से गर्भवती थी कल रात से पेट मे एक दाना तक न गया था, पूरी रात पेट मे मरोड़ उठता रहा मजाल है को किसी ने पाणी भी पूछ...
                       "थोड़ा ही सही"         बड़ी मुलाकात तो नही         थोड़े नज़राने ही सही पूरा दिन तो नही थोड़े लम्हे ही सही         सारे एहसास तो नही        थोड़े गम ही सही बड़ी खुशी नही थोड़ी मुस्कान ही सही           ताउम्र तो नही           थोड़े पल ही सही पूरी किताब तो नही थोड़े पन्ने ही सही            काश तुम होते साथ मेरे            थोड़ा ही सही            सुनते ज़माने वाले           थोड़े किस्से ही सही
                            फैसला                                भाग-2 भुट्टा बड़े असमंजस स्थिति में था। दो हाथों के बीच अपनी सांसो के लड़ रहा बिचारा भुट्टा छटपटाने लगा। रमेश ने जैसे ही लड़की के हाथों का मर्म एहसास किया झट्ट से अपना हाथ पीछे ले लिया। लड़की ने तिरछी नज़रो से उसकी ओर देखा मानो उसको शुक्रिया कह रही हो। यह दृश्य देख कर लड़कियों का झुंड खिलखिलाने लगा और अपनी जीत पर जश्न मनाने लगा। रमेश ने अपने कदम पीछे ले लिए ओर शिवांक को चलने का इशारा किया और दोनो जन वहां से चलते बने। अरे भैजी क्या आप भी एक भुट्टा नही ले पाए। वो लड़किया देखा कितना चहक रही थी। पर रमेश को इस बात का बुरा नही लगा क्योंकि उसने मन मे तो कुछ और ही चलने लगा था।  कोई नही बंधु भुट्टा न सही आज छोले ही सही। सैर के बाद दोनों वापस अपने कमरे में लौटे। थके हारे दोनो बिस्तर पर लेटे ओर शिवांक की कुछ ही क्षणों में आँख लग गई परंतु रमेश की आँखों मे नींद कहाँ ...
                     फैसला                        भाग-1 बेटा जैकेट रख ली न? सुना है वहां बारह महीने ठंड पड़ती है। पिछले साल शर्मा जी का लड़का कितना बुरा बीमार पड़ा था दस दिन अस्पताल में पड़ा रहा। मेने काजू, बादाम और किशमिश बड़े वाले डिब्बे में रख दिए है रात को याद से खा लियो वहां पता नही ये सब मिले न मिले घर का खाया रहेगा तो शरीर पर ही लगेगा। तेरे कपड़े बड़े वाले बैग में है और किताब छोटे वाले थैले में रखी है साथ मे दो गिलास कटोरी चमच प्लेट भी रख दी है क्या पता कौन दिन काम लग जाए। टिकट पैसे सब रख दिए न तूने?  हा माँ तू तो ऐसे कर रही है जैसे में ससुराल जा रहा हूं और वापस न आने वाला हु। बस तीन साल की तो बात है और फिर छुट्टियों में आना जाना लगा ही रहेगा।  बेट माँ का मन है तू नही समझेगा। मैं जी किस के लिए रही हूँ तेरे लिए ही तो। (माँ की आँखे नम होने लगती है बेटा गले लगाते हुए) अरे क्या तू भी रोने लगी है। अच्छे काम मे रोते नही है। ठीक है बाबा नही रोती। ...
"मैं शून्य ही सही" मैं शून्य ही सही पर अस्तित्व मिटा नही हूँ तेज में जला पर खाक हुआ नही लहरों में जो घिरा पर डूबता नही आंधी में हूँ खड़ा पर गिर न सका जंग में पिस रहा पर हारता नही अंधेरी रात जो हुई भयभीत न हुआ जुगनू सा जल उठा खुद ही प्रकाश बन पथ पर बढ़ता चला मैं शून्य ही सही पर अस्तित्व न मिटा              -योगेन्द्र थलेड़ी