चल पड़ा हूँ मैं
ज़िम्मेदारियों के तले
कर्मों का झोला लिए
अनजानी राह पर
चल पड़ा हूँ मैं
कोई साथ न सही
अकेला हूँ
बालपन अंगारों से खेला हूँ
शूलो सजे पथ पर
चल पड़ा हूँ मैं
है रात के साए बड़े
दिन दूप से जल रहे
लत-पत पैर रक्त से
खंजर के जैसे धार पर
चल पड़ा हूँ मैं
अपने किनारे जो खड़े
एक खेल समझ के हंस पड़े
न हारता न पस्त हूँ
खुद में ही मस्त हूँ
काल रथ पर
चल पड़ा हूँ मैं
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