"तुम्हे क्यों सोचता हूँ" अकसर सोचता हूँ की तुम्हे क्यों सोचता हूँ इस सोच सोच में फिर तमको ही सोचता हूँ मेरा में खुद न रहा तेरा हो कर तेरा न रहा फिर तेरे मेरे में कही का न रहा बीते रात इन सवालों में चाँद छुप जाए उजालों में अगली रात फिर यही सोचता हूँ की तुम्हें क्यों सोचता हूँ
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अक्टूबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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एहसास बने अलफाज़ * मुट्ठी भर मिट्टी शमशान में पड़ी ज़रा राख को ज़िन्दगी मौत तक चल पड़ी * सो गया वो भूखे पेट ही सही आते है फ़रिश्ते सपनों में रोटी लिए जब माँ ने ये लोरी में कही * अलफाज़ों से न इश्क़ एहसासो ने बयां होगा तेरी रूह से मिलूँगा इसकदर मेरा साया भी तेरा होगा * सूखी पगडंडी घर मे अब त्यौहार नही आता जो शहर की लगी हवा अब बेटा गाँव नहीं आता * दौलत की झूठी शान बताती है शमशान में कफ़न ओर सिर्फ लकड़ी काम आती है * कोरा कागज़ मिज़ाज़-ए-कलम सख्त लगता है एहसासो को अलफाज़ों में उतरने में वक्त लगता है